हर लम्हा खामोश सा,
कुछ कहने की कोशिश करता है।
बेबाक दिल की गुजारिश,
पढ़ने की फिराक में रहता है।
हर लम्हा अतीत का,
आज की रंजिश करता है,
क्यों बढूं तेरे बिन आगे,
यूँ ही दिल में उफान आता है।
युहीं चल नहीं सकता बिन तेरे,
पर युहीं तो चलना पड़ता है।
गुज़ारिशों की साजिशों से,
तेरा खुदा भी तो किनारा करता है।
थोड़ा चल लूँ, या गिर जाऊं,
कफ़न तक तो चलके जाना है,
ख़ामोशी की ये रहगुजर,
परछाई ही बन चलना है।
बस युहीं चलदे तू,
मुझे अपनी राह चलना है,
दो कदम पीछे ही सही,
मुझे मेरे खुदाई में ढलना है।
Friday, August 5, 2016
ख़ामोशी के रहगुजर
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